Natasha

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लेखनी कहानी -27-Jan-2023

“हरामजादे, तुझे डराने के लिए और कोई जगह नहीं मिली?” फूफाजी ने महाक्रोध से हुक्म दिया, “साले को कान पकड़कर लाओ।”


किशोरी सिंह ने उसे सबसे पहले देखा था, इसलिए उसका दावा सबसे प्रबल था। वह गया और उसके कान पकड़कर घसीटता हुआ ले आया। भट्टाचार्य महाशय उसकी पीठ पर जोर-जोर से खड़ाऊँ मारने लगे और गुस्से के मारे दनादन हिंदी बोलने लगे-

“इसी हरामजादे बदजात के कारण मेरी हड्डी-पसली चूर हो गयी है। साले पछहियों ने घूँसे मार-मारकर कचूमर निकाल दिया।”

श्रीनाथ का मकान बारासत में था। वह हर साल इसी समय एक बार रोजगार करने आता था। कल भी वह इस घर में नारद बनकर गाना सुना गया था। वह कभी भट्टाचार्य महाशय के और कभी फूफाजी के पैर पकड़ने लगा। बोला, “लड़कों ने इतना अधिक भयभीत होकर, और दीवट लुढ़काकर, ऐसा भीषण काण्ड मचा दिया कि मैं स्वयं भी मारे डर के उस वृक्ष की आड़ में जाकर छिप गया। सोचता था कि कुछ शान्ति होने पर, बाहर आकर, अपना स्वाँग दिखाकर जाऊँगा। किन्तु मामला उत्तरोत्तर ऐसा होता गया कि मेरी फिर हिम्मत ही नहीं हुई।”

श्रीनाथ आरजू-मिन्नत करने लगा; किन्तु फूफाजी का क्रोध कम हुआ ही नहीं। बुआजी स्वयं ऊपर से बोलीं, “तुम्हारे भाग्य भले थे जो सचमुच का बाघ-भालू नहीं निकला, नहीं, तो जैसे बहादुर तुम और तुम्हारे दरबान हैं- छोड़ दो बेचारे को, और दूर कर दो डयोढ़ी के इन पछहियाँ दरबानों को। एक जरा से लड़के में जो साहस है उतना घर-भर के सब आदमियों में मिलकर भी नहीं है।” फूफाजी ने कोई बात ही न सुनी; वरन् उन्होंने बुआजी के इस अभियोग पर आँखें घुमाकर ऐसा भाव धारण किया कि मानो इच्छा करते ही वे इन सब बातों का काफी और माकूल जवाब दे सकते हैं, परन्तु चूँकि औरतों की बातों का उत्तर देने की कोशिश करना भी पुरुष जाति के लिए अपमानकारक है इसलिए, और भी गरम होकर हुक्म दिया, “इसकी पूँछ काट डालो।” तब उसकी रंगीन कपड़े से लिपटी हुई घास की बनी लम्बी पूँछ काट डाली गयी, और उसे भगा दिया गया। बुआजी ऊपर से गुस्से में बोलीं, “पूँछ को सँभालकर रख छोड़ो, किसी समय काम आएगी!”

इन्द्र ने मेरी ओर देखकर कहा, “मालूम पड़ता है, तुम इसी मकान में रहते हो, श्रीकांत!”

मैंने कहा, “हाँ, तुम, इतनी रात को कहाँ जाते थे?”

इन्द्र हँसकर बोला, “रात कहाँ है रे, अभी तो संध्यास हुई है। मैं जाता हूँ अपनी डोंगी पर मछली पकड़ने। चलता है?”

मैंने डरकर पूछा, “इतने अन्धकार में डोंगी पर चढ़ोगे?”

वह फिर हँसा, बोला, “डर क्या है रे? इसी में तो मजा है। सिवाय इसके क्या अंधेरा हुए बगैर मछलियाँ पाई जा सकती हैं? तैरना जानता है?”

“खूब जानता हूँ।”

“तो फिर चल भाई।” यह कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। कहा, “मैं अकेला इतने बहाव में उस तरफ को नाव नहीं ले सकता, ऐसे ही किसी की खोज में था जो डरे नहीं।”

मैंने फिर कुछ न कहा। उसका हाथ पकड़े हुए चुपचाप रास्ते पर आ पहुँचा। पहले तो मानो मुझे अपने आप पर ही विश्वास न हुआ कि सचमुच ही उस रात्रि को मैं नाव चलाने जा रहा हूँ, क्योंकि जिस आह्नान के आकर्षण से उस स्तब्ध निबिड़ निशा में, घर के समस्त शासन-पाश को तुच्छ समझकर, अकेला बाहर चला आया था वह कितना बड़ा आकर्षण था, यह उस समय विचारकर देख सकना मेरे लिए साध्यु ही नहीं था। अधिक समय बीतने के पूर्व ही गोसाईं बाग के उस भयंकर वन-पथ के सामने आ उपस्थित हुआ और इन्द्र का अनुसरण करता हुआ स्वप्नाविष्ट पुरुष की भाँति उसे पारकर गंगा के किनारे जा पहुँचा।

कंकड़-पत्थरों का खड़ा किनारा है। सिर के ऊपर एक बहुत प्राचीन बरगद का वृक्ष मूर्तिमान अन्धकार के समान चुपचाप खड़ा है और उसी के करीब तीस हाथ नीचे सूचीभेद्य अन्धकार के तल में, पूरी बरसात का गम्भीर जल-स्रोत चट्टानों से टकराकर, भँवरों की रचना करता हुआ, उद्दाम वेग से दौड़ रहा है। देखा कि, उसी स्थान पर इन्द्र की छोटी-सी नाव बँधी हुई है। ऊपर से देखने पर ऐसा मालूम हुआ मानो उस खूब तेज जल-धारा के मुख पर केले के फूल का एक छोटा-सा छिलका लगातार टकरा-टकराकर मर रहा है।

मैं स्वयं भी बिल्कुरल डरपोक नहीं था। किन्तु जब इन्द्र ने ऊपर से नीचे तक लटकती हुई एक रस्सी दिखलाकर कहा, “डोंगी की इस रस्सी को पकड़कर चुपचाप नीचे उतर जा; सावधानी से उतरना, फिसल गया तो फिर खोजने से भी तेरा पता नहीं लगेगा।” तब दरअसल मेरी छाती धड़क उठी। जान पड़ा कि यह असम्भव है, फिर भी मेरे लिए तो रस्सी का सहारा है-”किन्तु तुम क्या करोगे?”

उसने कहा, “तेरे नीचे जाते ही मैं रस्सी खोल दूँगा और फिर नीचे उतरूँगा। डर की बात नहीं है, मेरे नीचे उतरने के लिए बहुत-सी घास की जड़ें झूल रही हैं।”

और कुछ न कहकर मैं रस्सी के सहारे बड़ी सावधानी से बमुश्किल नीचे उतरकर नाव पर बैठ गया। इसके बाद उसने रस्सी खोल दी और वह झूल गया। वह किस चीज के सहारे नीचे उतरने लगा सो मैं आज भी नहीं जानता हूँ! डर के मारे मेरी छाती इतने जोर से धड़कने लगी कि उसकी और मैं देख भी न सका। दो-तीन मिनट तक विपुल जल-धारा के उन्मत्त गर्जन के सिवाय कहीं से कोई शब्द भी नहीं सुनाई दिया। एकाएक एक हलकी-सी हँसी के शब्द से चौंककर मुँह फिराया तो देखता हूँ कि इन्द्र ने दोनों हाथों से डोंगी को जोर से धक्का देकर ठेल दिया है और आप कूदकर उस पर चढ़ बैठा है। क्षुद्र तरी एक चक्कर-सा खाकर नक्षत्र-वेग से बहने लगी।

कुछ ही देर में सामने और पीछे सब कुछ सघन अन्धकार से लिप-पुतकर एकाकार हो गया। रह गयी दाहिनी ओर बाईं ओर दोनों सीमाओं तक फैली हुई विपुल उद्दाम जल की धारा, और उसके ऊपर खूब तेजी से चलने वाली वह छोटी-सी नाव और उस पर किशोरवय के दो बालक। यद्यपि प्रकृति देवी के अपरिमेय गम्भीर रूप को समझने की उम्र वह नहीं थी, किन्तु उसे मैं आज भी नहीं भूल सका हूँ। वायुहीन, निष्कम्प, निस्तब्ध, नि:संग, निशीथनी की मानो वह एक विराट काली मूर्ति थी। उसके निबिड़ काले बालों से आकाश और पृथ्वी ढँक गयी थी और उस सूची-भेद्य अन्धकार को विदीर्ण करके, कराल दाढ़ों की रेखा के समान, उस दिगन्त-विस्तृत तीव्र जलधारा से मानो एक तरह की अद्भुत निश्चल द्युति, निष्ठुर दबी हुई हँसी के समान, बिखर रही थी। आसपास और सामने, कहीं तो जल की उन्मत्त धारा तल देश में जाकर तथा ऊपर को उठकर फट पड़ती थी, कहीं परस्पर के प्रतिकूल गति संघात से आवर्तों की रचना करती हुई चक्कर खाती थी, और कहीं अप्रतिहित जल-प्रवाह पागल की तरह दौड़ा जा रहा था।

हमारी डोंगी एक कोने से दूसरे कोने की ओर जा रही है, बस इतना ही मालूम हो रहा था। किन्तु उस पार के उस दुर्भेद्य अन्धकार में, किस जगह लक्ष्य स्थिर करके, इन्द्र हाल को पकड़े चुपचाप बैठा है, यह मैं कुछ न जानता था। इस उम्र में वह कितना पक्का माझी बन गया था, इसकी मुझे उस समय कल्पना भी न थी। एकाएक वह बोला-

“क्यों रे श्रीकांत, डर लगता है क्या?”

मैं बोला, “नहीं।”

इन्द्र खुश होकर बोला, “यही तो चाहिए। जब तैरना आता है तब फिर डर किस बात का?” प्रत्युत्तर में मैंने एक छोटे-से नि:श्वास को दबा दिया कि कहीं वह सुन न ले। किन्तु, ऐसी गहरी अंधेरी रात में, ऐसी जल-राशि और ऐसे दुर्जय प्रवाह में, तैरना जानने और न जानने में क्या अन्तर है, सो मेरी समझ में न आ सका। उसने भी और कोई बात नहीं कही। बहुत देर तक इसी तरह चलते रहने के बाद कहीं से कुछ आवाज-सी आई, जो कि अस्फुट और क्षीण थी, किन्तु नौका जैसे-जैसे अग्रसर होने लगी वैसे ही वैसे वह आवाज भी स्पष्ट और प्रबल होने लगी। मानो लोगों का बहुत दूर से आता हुआ क्रुद्ध आह्नान हो- मानो कितने ही बाधा-विघ्नों को लाँघकर, हटाकर, वह आह्नान हमारे कानों तक आ पहुँचा हो। वह आह्नान थका हुआ-सा था, फिर भी न उसमें विराम था और न विच्छेद ही- मानो उनका क्रोध न कम होता था न बढ़ता ही था और न थमना ही चाहता था। बीच-बीच में एकाध दफा 'भप्-भप् शब्द भी होता थ। मैंने पूछा, “इन्द्र यह काहे की आवाज सुन पड़ती है?” उसने नौका का मुँह कुछ और सीधा करके कहा, “जल के प्रवाह से उस पार के कगारे, टूट-टूटकर गिर रहे हैं, उसी का यह शब्द है।”

मैंने पूछा, “कितने बड़े कगारे हैं? और कैसा प्रवाह है?”

“बड़ा भयानक प्रवाह है। ओह! तभी तो- कल पानी बरस गया है,- आज उसके तले से न गया जाएेगा। कहीं एक भी कगारा गिर पड़ा तो नाव और हम सभी पिस जाँयगे। अच्छा, तू तो डाँड़ चला सकता है न?”

“चला सकता हूँ।”

“तो चला।”

मैंने डाँड़ चलाना शुरू कर दिया। इन्द्र ने कहा, “वही, वही जो बायीं ओर काला-काला दीख पड़ता है, वह चड़ा¹ है। उसके बीच में से एक नहर-सी गयी है, उसी में से होकर निकल जाना होगा- परन्तु बहुत आहिस्ते। अगर कहीं धीवरों को जरा भी पता लग गया, तो फिर लौटना न हो सकेगा। वे लग्गी की मार से सिर फोड़कर इसी कीचड़ में गाड़ देंगे।”

यह क्या? मैंने डरते हुए कहा, “तो फिर उस नहर में होकर मत चलो।” इन्द्र ने शायद कुछ हँसकर कहा, “और तो कोई रास्ता ही नहीं है। उसके भीतर होकर तो जाना ही होगा। द्वीप के बायीं ओर की रेहं को ठेलकर तो जहाज भी नहीं जा सकता- फिर हम कैसे जाँयगे? लौटती में वापिस आ सकते हैं किन्तु जा नहीं सकते।”

“तो फिर मछलियों के चुराने की जरूरत नहीं है भइया।” कहकर मैंने डाँड़ ऊपर उठा लिया। पलक मारते ही नाव चक्कर खाकर लौट चली। इन्द्र खीझ उठा। उसने आहिस्ते से झिड़कते हुए कहा, “तो फिर आया क्यों? चल-तुझे वापिस पहुँचा आऊँ। कायर कहीं का!” उस समय मैंने चौदह पूरे करके पन्द्रहवें में पैर रक्खा था। मैं कायर? झट से डाँड़ को पानी में फेंककर प्राणप्रण से खेने लगा। इन्द्र खुश होकर बोला, “यही तो चाहिए, किन्तु भाई धीरे-धीरे चलाओ- साले बहुत पाजी हैं। मैं झाऊ के वन के पास से, मकई के खेतों के भीतर होकर, इस तरह बचाकर ले चलूँगा कि सालों को जरा भी पता न पड़ेगा!” फिर कुछ हँसकर बोला, “और यदि सालों को पता लग भी गया तो क्या? पकड़ लेना क्या इतना सहज है? देख श्रीकांत, कुछ भी डर नहीं है- यह ठीक है कि उन सालों की चार नावें हैं- किन्तु यदि देखो कि घिर ही गये हैं, और भाग जाने की कोई जुगत नहीं है, तो चट से कूदकर डुबकी लगा जाना और जितनी दूर तक हो सके उतनी दूर जाकर निकलना, बस काम बन जाएेगा। इस अन्धकार में देख सकने का तो कोई उपाय ही नहीं है- उसके बाद मजे से सतूया के टीले पर चढ़कर भोर के समय तैरकर इस पार आ जाँयगे और गंगा के किनारे-किनारे घर पहुँच जाँयगे- बस, फिर क्या कर लेंगे साले हमारा?”

यह नाम मैंने सुना था; कहा, “सतूया का टीला तो 'घोर' नाले के सामने है, वह तो बहुत दूर है।”

इन्द्र ने उपेक्षा के भाव से कहा, “कहाँ, बहुत दूर है? छ:-सात कोस भी तो न होगा! तैरते-तैरते यदि हाथ भर आवें तो चित्त होकर सुस्ता लेना; इसके सिवाय, मुर्दे जलाने के काम आए हुए बहुत-से बड़े-बड़े लक्कड़ भी तो बहते मिल जाँयगे।”

आत्म-रक्षा का जो सरल रास्ता था सो उसने दिखा दिया, उसमें प्रतिवाद करने की कोई गुंजाइश नहीं थी। उस अंधेरी रात में, जिसमें दिशाओं का कोई चिह्न नजर न आता था, और उस तेज जल-प्रवाह में, जिसमें जगह-जगह भयानक आवत्त पड़ रहे थे, सात कोस तक तैरकर जाना और फिर भोर होने की प्रतीक्षा करते रहना! सवेरे से पहले इस तरफ के किनारे पर चढ़ने का कोई उपाय नहीं। दस-पन्द्रह हाथ ऊँचा खड़ा हुआ बालू का कगारा है, जो टूटकर सिर पर आ सकता है,- और इसी तरफ गंगा का प्रवाह भीषण टक्करें लेता हुआ अर्ध्दवृत्ताकार दौड़ा जा रहा है।

वस्तुस्थिति का अस्पष्ट आभास पाकर ही मेरा विस्तृत वीर-हृदय सिकुड़कर बिन्दु जैसा रह गया। कुछ देर तक डाँड़ चलाकर मैं बोला, “किन्तु हमारी नाव का क्या होगा?”

इन्द्र बोला, “उस दिन भी मैं ठीक इसी तरह भागा था, और उसके दूसरे ही दिन आकर नाव निकाल ले गया था- कह दिया था कि घाट पर से डोंगी चोरी करके कोई और ले आया होगा- मैं नहीं लाया।”

तो यह सब इसकी कल्पना ही नहीं है- बिल्कुयल परीक्षा किया हुआ प्रत्यक्ष सत्य है! क्रमश: नौका खाड़ी के सामने आ पहुँची। देख पड़ा कि मछुओं की नावें कतार बाँधकर खाड़ी के मुहाने पर खड़ी हैं और उनमें दीए भी टिमटिमा रहे हैं। दो टीलों के बीच का वह जल-प्रवाह नहर की तरह मालूम होता था। घूमकर हम लोग उस नहर के दूसरे किनारे पर जाकर उपस्थित हो गये। उस जगह जल के वेग से अनेक मुहाने से बन गये हैं और जंगली झाऊ के पेड़ों ने परस्पर एक-दूसरे को ओट में कर रक्खा है। उनमें से एक के भीतर होकर कुछ दूर जाने से ही हम नहर के भीतर जा पहुँचे। धीवरों की नावें वहाँ से दूर पर खड़ी हुई काली-काली झाड़ियों की तरह दिखाई पड़ती थीं। और भी कुछ दूर जाने पर हम उद्दिष्ट स्थान पर पहुँच गये।

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